मंगलवार, 14 जून 2011

संसार में निर्वाण खोजना क्या इतना आसान है ?

बुद्ध जब सुबह हमेशा की तरह भिक्षा मांगने एक घर के सामने रुक गए ! तब पता नहीं उस घर की गृहिणी किस क्रोध में घर को बुहार रही थी, जब बुद्ध को घर के सामने भिक्षा मांगते देखा तो क्रोध के आवेश में सारा घर का कचरा बुद्ध पर फ़ेंक दिया ! इस अप्रत्याशित घटना से कुछ पल के लिए बुद्ध भी हतप्रभ रह गए ! उनकी समझ में नही आया की, क्या हुआ है ! जब सारा शरीर बदबूदार हो गया तो, बुद्ध जैसे  करुणावान मनुष्य का मन भी पलभर को आहत हुआ  होगा वेदना से, उस दिन उन्होंने फिर कोई भिक्षा नहीं मांगी ! और अपने स्थान पर जाकर वे ध्यानमग्न होकर बैठ गए ! जैसे कुछ हुआ ही नहीं ! कहानी यही तक कहती है पर मुझे पता है आगे क्या हुआ होगा ! अब क्या भिक्षा मांगना, उस दिन उस घटनासे उनकी सारी भूख ही,मर गई होगी और क्या ? हमारे आस-पास भी बहुत सारे ऐसेही लोग अपने-अपने घृणा का कचरा लिए बैठे है ! जरासा आपने अपने मन का द्वार खोला नहीं की, फ़ेंक देते है उस कचरे को, सारी घृणा उंडेल देते है आप पर ! कितना भी सहनशील,संवेदनशील मन क्यों न हो आखिर बिखर ही जाता है ! दुखी होता है ! जीवन का सारा उत्साह जैसे समाप्त होने लगता है !
   साँझ जब बुद्ध अपने भिक्षुओंको अपने अमृतमय प्रवचन सुना रहे थे तब,वह गृहिणी  वहां आकर, बुद्ध के चरणों में सर रख कर रोते हुए माफ़ी मांगती है ! सुबह की हुई भूल पर बहुत पछतावा भी करती है तो , पता है तब महात्मा बुद्ध ने क्या कहा ?उन्होंने कहा अरी बावरी छोड़ सुबह की घटना को, मै तो कब का भूल गया ! तू भी भूल जा ! क्योंकि सुबह क्रोध करनेवाला वाला कोई और मन था  ! अब माफ़ी मांगने वाला कोई और है ! सब मन का खेल है! और महात्मा बुद्ध ने उस गृहिणी को क्षमा कर दिया ! हम ऐसा क्षमा भाव कहाँ से लाये, ऐसे मनुष्यों को क्षमा करने के लिए! बुद्ध जैसा असाधारण मन उनके जैसी करुणा कहाँ से लाये हम ?  रुग्ण  मानसिकता से भरे मनुष्योंके के बीच रहकर संसार में निर्वाण खोजना क्या इतना आसान है ?



12 टिप्‍पणियां:

  1. जी सच में जब भी महात्मा बुद्ध का ये प्रसंग पढता हूं, मन में तरह तरह के भाव उठते हैं। आज तो सुमन दी किसी पर भूल से भी कूडा पड़ जाए तो वो जीवन भर माफ नहीं करेगा।
    बहुत सुंदर

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  2. महात्मा बुद्ध का प्रेरक प्रसंग , सार्थक पोस्ट ,आभार

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  3. छोटी सी कथा का बहुत ही सार्थक विस्तार और विवेचन किया है । कथाओं से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। कल्याण पत्रिका में अखंड ज्योति में ऐसे दृष्टांत इसी लिये दिये जाते है परन्तु पढ कर आप की तरह कोई गहराई में नहीं उतर पाता है । व्याख्या बहुत ही श्रेष्ठ की है आपने कहानी की

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  4. क्या निर्वाण सापेक्षिक है कि सबकी मानसिकता ठीक हो जाए तो हम निर्वाण प्राप्त करें? इन रूग्णताओं के बीच प्राप्त हुआ निर्वाण अधिक मूल्यवान होगा। निर्वाण की प्राप्ति हमारी अपनी मानसिक स्थिति पर संभव है,न कि औरों की। हमारे आसपास की मानसिकता अगर पूरी तरह ठीक हो जाए,तो प्राप्त करने को कुछ रहेगा ही नहीं,वैसी स्थिति में निर्वाण स्वतः प्राप्त हुआ ही समझिए- चाहे हमें उसका भान हो न हो।

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  5. bahut kushalta se aapne man ke bhaon ko buddh ke prerak prasang se joda hai suman ji.aabhar.

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  6. सारगर्भित पोस्ट सुमनजी .....प्रेरक प्रसंग

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  7. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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  8. कहानी किस्सा नहीं है आप बीती है .हम तब (१९६३-१९६४ )त्रि -वर्षीय बी एससी कोर्स के सेकिंड ईयर में थे .स्थान था सागर .विश्वविद्यालय में पढ़ते थे .बाल भाव था उम्र भी कम थी ,अफिदेवित (शपथ पत्र)देना पड़ा था हम १६ के हो गएँ हैं थे साढ़े पंद्रह के .जहां रहते थे वहां पहली मंजिल पर एक मेजर परिवार रहता था .(हम नेपाल पेलेस )में रहते थे .वह भवन नेपालियों का था लेकिन अब वो दिन नहीं थे दुर्दिन थे ।
    एक दिन मेजरनी ने (वैसे ये फौजियों की बीवियां अपना दर्ज़ा एक ऊपर किये रहतीं हैं पति के दर्जे से ,आसमान में सूराख करने को आतुर ) ऊपर से बिना नीचे झांके कचरा फैंका ,हम ग्राउंड फ्लोर पर रहते थे .वह हमारे सिर पे गिरा .उन दिनों अंग्रेजी बोलने का शौक था हमने आंग्ल भाषा में ही उन पर प्रहार किया ।
    कोई तीनेक दिन बाद हम तैयार होकर यूनिवर्सिटी के लिए निकले ही थे ,एन घर के बाहर "बीवीजी के ऑर्डरली ने क़स के हमें पीछे से गुद्दी पर रसीद किया -बीवीजी से जवान चलाता है .यकीन मानिए बहुत उबाला आया मामा श्री को जो यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर थे बात छात्र बरक्स फौजी का रुख ले सकती थी .हम सीधे उपकुलपति महोदय के पास इस घटना का रोना लेके पहुँच गए थे .यूनिवर्सिटी उस दौर में राजनीति का अड्डा नहीं थी .घटना का नतीजा यह हुआ हमें आउट ऑफ़ टार्न यूनिवर्सिटी क्वार्टर मिल गया .वी सी थे डॉ .जी बी भट्ट (सेवा निवृत्त मुख्य ज़ज़ हाई कोर्ट )।
    भड़कता है आदमी और तब से तो सरयू में बहुत पानी बह चुका है अब तो बात बे -बात भी आप किसी से भी उलझ सकते हैं रोड रेज़ की भी सुविधा पराप्त है आदमी को ।
    अच्छी विश्लेषण परक बोध कथा के लिए आपका आभार .

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  9. अच्छा लगा यह प्रेरक प्रसंग पढ़कर.

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  10. प्रेरक प्रसंद .. पर ये भी सच है की मन को बांधना ... भूल जाना इंसान के बस में नहीं होता ...

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  11. bahut achcha laga...maine bhi apne blog ke Bhagwan Buddha ke Anmol Vachan likhe hain.

    www.achchikhabar.blogspot.com

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  12. संगत का बहुत असर होता है सुमन जी.
    बुद्ध की संगत का ही नतीजा था कि उस गृहणी के मन में पश्चाताप हुआ.हम भी यदि निरंतर अच्छी संगत का सेवन करें तो सकारात्मक प्रभाव जरूर आयेगा हममें भी.
    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

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